अतीत के झरोखे से..
डंढारे की अमराई (डंढीरे याची अमरई) बिरुल बाजार
अतीत के झरोखे से देखे तो बिरूल बाजार के उत्तर दिशा में स्थित डंढारे की अमराई (आम का बगीचा) एक हरित युग की याद दिलाती है। कुछ पुराने वृद्ध पुरुष इस अमराई से भली भांति परिचित होंगे। पर बिरुल बाजार के आज के युवा इस अमराई से शायद परिचित ना हो। वे अवश्य इस अमराई के बारे मेंं अपने दादा नाना से पूछ सकते है।
आइए जानते है इस अमराई के बारे में।
यह अमराई इस क्षेत्र की सबसे बड़ी अमराई हुआ करती थी। इसे डंढारो की अमराई के नाम से जाना जाता था। इसे कोरकू और गवली (आदिवासी लोग) लोगो ने लगाया था उसके बाद यह डंढारो के पास आई। यह करीब 16 एकड़ में फैली हुई थी और इसमें 300 से अधिक पेड़ थे सारे पेड़ कतार से लगाये हुए थे
इसे सींचने के लिए 6 कुँए थे इससे लगकर और भी अमराइया थी कुल मिलाकर 30 एकड़ से ज्यादा क्षेत्र में ये फैली हुई थी।
इसमे बड़े-बड़े ,ऊंचे-ऊँचे और इतने मोटे पेड़ थे की अगर 3 व्यक्ति एक दूसरे का हाथ पकड़े तो भी एक आम के तने को पूरा नही पकड़ सकते थे (जैसे आपने बाहुबली फ़िल्म में देखे होंगे) की कई कतारे हुआ करती थी। कहते है दिन में अकेले जाने से लोग डरते थे, क्योंकि यह इतनी घनी हुआ करती थी और इसके एक ओर नदी थी यहाँ पर जंगली जानवर हमेेशा रहते थे। इस अमराई की खास बात यह थी कि इसमें जितने भी आम के पेड़ थे सभी अलग अलग किस्मो के जो आज के दशहरी, हापुस ,लंगड़ा,अल्फ़ांसो जैसे आमो को टक्कर देते थे। इन आमों की अपनी एक खासियत थी इनका 'स्वाद'।
किसी आम का स्वाद नारियल जैसा लगता तो किसी आम का स्वाद शक्कर जितना मिठा। कोई आम अंदर से सिन्दूरी रंग जैसा तो कोई आम एकदम सफेद हुआ करता था।
कोई आम आकार में छोटा तो कोई बहुत अधिक बड़ा, कोई मूसर जैसा आकार में लंबा तो कोई लड्डू जैसा गोल मटोल।
स्थानीय लोगो ने मराठी में इन आमों के नाम उनके रंग ,आकार और स्वाद के अनुसार रखे थे जो इस प्रकार है;
1.पांढरी गोंगली(सफेद )
2.भदाड्या(चपटा व खट्टा)
3.फोक(लंबा)
4.काट्या(गुठली को काटे)
5.लहान शेंदरीन
6.हडकीन(रस कम लेकीन लंबा)
7.गोड गोंगली(मीठा)
8.साकरिन(छिलको पर शक्कर जैसे धब्बे व मिठा)
9.लाडू (लड्डू की तरह गोल)
10.किडाया फोक(जल्दी सडने वाला)
11.मोठा शेंदऱ्या(रामफल जैसा बडा)
12.येलगुंडी(मरोडदार व आकार मे लंबा)
13.मुसरीन(मुसर जैसा आकार)
14.लसण्या(लहसून जैसी सुगंध)
15.लोदंऱ्या(गाढा रस वाला)
16.झाल(छत्री जैसा फैला हुआ पेड)
17.कारू
18.कार्मग्या(यह आम गाव को दान दिया था मुनादी करने के बाद इसके हिस्से होते थे सारा गाव अपना हिस्सा लेने आता था करीब 1 लाख आम अकेले इस आम से निकलते थे)
19.खोबऱ्या(नारीयल के तेल जैसा स्वाद)
20.नाकसड्या(उपर से सड जाता था)
21.मूतरांद्या(स्वाद अच्छा नही)
22.आंबिन(दशहरी जैसा लंबा व गुच्छो मे आने वाला)
23.बोंबापाठ(बहुत अधिक खट्टा)
24.बोरीवाला
25.डोबी
26.परश्या
27.गधलाद
28.किडा पड्या
29.खरखऱ्या(खाने के बाद गले मे खरास जैसा लगता था)
30.बोंबल्या
31.चोपड्या
32.रायत्या(अचार बनाने के लिए उपयोग करते थे)
33.तिखाडी
34.कागद्या
35.सेप्या
36.केऱ्या
37.दुद्या
38.मेंगनाथ्या
39.कामऱ्या
40.खवट्या(नाम खवट्या लेकिन खाने में एकदम मीठा)
41.वारक्या(यह आम काफी बड़ा होता था एक खुड़ी में एक ही आता था)
42.भानामोती
43.चितरंग सेप्या
44.अंधाऱ्या
45.लुहारिन
46.जोब
47.बेमल्या
48.खारकीन
49.निश्या(यह आम काफी बड़ा था रस निकालने के लिए इसे मसलते नही थे क्यों कि गुठली इतनी छोटी होती थी कि फुट जाता था इसलिए पहले इसके छिलके निकालना होता था)
50.थारल्या
51.हजाऱ्या
52.खोपड्या
_इस सूची में कई नाम है पूरे नाम इस छोटे से लेख में बताना मुश्किल है_
बिरूल बाजार में डंढारों की अमराई का विशेष महत्व था। लेकिन ये बिरुल बाजार की एक अकेली ही अमराई नही हुआ करती थी। ऐसी कई अमराइया बिरुल में थी। रास्तों के दोनों ओर और भी फलो जैसे जाम ,जामुन, गुल्लर इत्यादि के इतने घने और बड़े वृक्ष हुआ करते थे कि इतनी गर्मी में भी सूर्य की किरणें नीचे नही आती थी,पेड़ो की छाया के निचे से होते हुए भी गाव से नागदेव मंदिर पर पहुचा जा सकता था। यदि कोई व्यक्ति गर्मी में गांव के किसी भी क्षेत्र में घुमने निकल जाये तो रास्ते में ही उसे इतने पके आम(पाड़) मिलते थे कि उसका पेट भर जाए और घर मे भी एक बैग भर के ले आये,अगर बोरंग वाले रास्ते से निकल जाए तो नदी में जगह जगह पर इतने झिरे हुआ करते थे कि पीने के पानी के लिए किसी के कुएं पर जाने की आवश्यकता न पड़े। आम तोड़कर घरों के अंदरुनी कमरों में आमों के ढेरों को सुखी घास-फूस से ढककर पकने के लिए छोड़ दिया जाता था। इस समय स्कूल में अधिकतर बच्चो के शर्ट पैंट पर आम के रस के दागों को देखा जा सकता था, या होटो या गाल पे आम के चिक का रिएक्शन । आम रस और सेवइयाँ के साथ का खाना किसी बड़ी दावत से कम नही माना जाता था। ऐसी दावतें रोज ही होती थी। गुजरी और बुधवार बाजार में इन आमों को बेचने के लिए कई कतारें होती थी। भाव भी इतने सस्ते की १०० आमों का भाव बताया जाता था, जो आज कल्पना से परे है।
समय की विडंबना और दुर्भाग्य कि बात है कि आज ऐसी एक भी अमराई बिरुल बाजार में नही बची। गोभी से मोटी कमाई की लालच में हम अंधाधूंद ट्यूबवेल लगाते गये। परिणाम स्वरुप सारे कुए सुखते गए। जमीनी जल स्तर नीचे जाने से आमों की अमराइया भी सुखती गई और घने वृक्षों की जगह विरानों ने ले ली। पिछले करीब 25 वर्षों में हमने इन अमराइयों के साथ बहुत कुछ खो दिया। आज बिरुल बाजार में 3000 से अधिक ट्यूबेल है। जलस्तर 800 फ़ीट पर चला गया। ऐसी भीषण परिस्थिति में आज हम इन अमराइयों की कल्पना कैसे कर सकते है?
उस समय हरिणों के झुंड हमारे खेतो में घूमते थे। यह दृष्य बच्चों और बड़ों के मन में रोमांच पैदा करता था। किसान अपना हल रोककर हरिणों की अठखेलियां देखने लग जाते थे। लेकिन शिकारियों (पारधी) ने इन सबको मार कर बेच दिया। उन्हें रोकने के जगह हमने उन्हें मारने में सहयोग किया।
आज छोटे छोटे आम जिसे गोंगली कहते है जो पहले पेड़ से अपने आप गिरकर सड़ते थे और इन्हें कोई नही पूछता था, ऐसे गोंगली आम आज हम ₹30 रुपये किलो खरीदते है। क्या वह वक्त जब गांव के आसपास अमराई और हरियाली का साम्राज्य था, हम फिर से नही ला सकते? क्या पुनः हम अपने गाँव और खेतों को वैसा फिर से वैसा हरा भरा नही बना सकते ? क्या हम गांव की सारी दिशाओं में अमराइयों के बागों को पुनः निर्माण नही कर सकते?
बिल्कुल कर सकते है। जरूरत है हमें एकजुट होकर आपसी मतभेद भुलाकर मृदा व जल संधारण पर काम करने की। पेड़ों को लगाने की। एक दूसरे की टांग ना खीचकर एक दूसरे की सहायता करने की। स्वार्थ की राजनीति त्यागकर अपने गाँव से प्यार करने की। ऐसा करने से आपका तो भला होगा ही पर साथ में आपके पड़ोसी और सारे गांव का भला होगा।
_एक बार जरूर सोचियेगा, सोचियेगा और वक्षारोपन और रेन वाटर हारवेस्टिंग की प्रणाली को जरूर अपनाइयेगा।_
धन्यवाद।
आपका अपना ही,
*अमित कनेरे*
8796962344
बिरुल बाजार
संदर्भ
बिरुल बाजार के कुछ वृद्ध
श्री शिवराम महेंद्रे
श्री माणिकराव जी बारमासे
श्री शंकररावजी डंढारे
© *_अमित कनेरे_*
डंढारे की अमराई (डंढीरे याची अमरई) बिरुल बाजार
अतीत के झरोखे से देखे तो बिरूल बाजार के उत्तर दिशा में स्थित डंढारे की अमराई (आम का बगीचा) एक हरित युग की याद दिलाती है। कुछ पुराने वृद्ध पुरुष इस अमराई से भली भांति परिचित होंगे। पर बिरुल बाजार के आज के युवा इस अमराई से शायद परिचित ना हो। वे अवश्य इस अमराई के बारे मेंं अपने दादा नाना से पूछ सकते है।
आइए जानते है इस अमराई के बारे में।
यह अमराई इस क्षेत्र की सबसे बड़ी अमराई हुआ करती थी। इसे डंढारो की अमराई के नाम से जाना जाता था। इसे कोरकू और गवली (आदिवासी लोग) लोगो ने लगाया था उसके बाद यह डंढारो के पास आई। यह करीब 16 एकड़ में फैली हुई थी और इसमें 300 से अधिक पेड़ थे सारे पेड़ कतार से लगाये हुए थे
इसे सींचने के लिए 6 कुँए थे इससे लगकर और भी अमराइया थी कुल मिलाकर 30 एकड़ से ज्यादा क्षेत्र में ये फैली हुई थी।
इसमे बड़े-बड़े ,ऊंचे-ऊँचे और इतने मोटे पेड़ थे की अगर 3 व्यक्ति एक दूसरे का हाथ पकड़े तो भी एक आम के तने को पूरा नही पकड़ सकते थे (जैसे आपने बाहुबली फ़िल्म में देखे होंगे) की कई कतारे हुआ करती थी। कहते है दिन में अकेले जाने से लोग डरते थे, क्योंकि यह इतनी घनी हुआ करती थी और इसके एक ओर नदी थी यहाँ पर जंगली जानवर हमेेशा रहते थे। इस अमराई की खास बात यह थी कि इसमें जितने भी आम के पेड़ थे सभी अलग अलग किस्मो के जो आज के दशहरी, हापुस ,लंगड़ा,अल्फ़ांसो जैसे आमो को टक्कर देते थे। इन आमों की अपनी एक खासियत थी इनका 'स्वाद'।
किसी आम का स्वाद नारियल जैसा लगता तो किसी आम का स्वाद शक्कर जितना मिठा। कोई आम अंदर से सिन्दूरी रंग जैसा तो कोई आम एकदम सफेद हुआ करता था।
कोई आम आकार में छोटा तो कोई बहुत अधिक बड़ा, कोई मूसर जैसा आकार में लंबा तो कोई लड्डू जैसा गोल मटोल।
स्थानीय लोगो ने मराठी में इन आमों के नाम उनके रंग ,आकार और स्वाद के अनुसार रखे थे जो इस प्रकार है;
1.पांढरी गोंगली(सफेद )
2.भदाड्या(चपटा व खट्टा)
3.फोक(लंबा)
4.काट्या(गुठली को काटे)
5.लहान शेंदरीन
6.हडकीन(रस कम लेकीन लंबा)
7.गोड गोंगली(मीठा)
8.साकरिन(छिलको पर शक्कर जैसे धब्बे व मिठा)
9.लाडू (लड्डू की तरह गोल)
10.किडाया फोक(जल्दी सडने वाला)
11.मोठा शेंदऱ्या(रामफल जैसा बडा)
12.येलगुंडी(मरोडदार व आकार मे लंबा)
13.मुसरीन(मुसर जैसा आकार)
14.लसण्या(लहसून जैसी सुगंध)
15.लोदंऱ्या(गाढा रस वाला)
16.झाल(छत्री जैसा फैला हुआ पेड)
17.कारू
18.कार्मग्या(यह आम गाव को दान दिया था मुनादी करने के बाद इसके हिस्से होते थे सारा गाव अपना हिस्सा लेने आता था करीब 1 लाख आम अकेले इस आम से निकलते थे)
19.खोबऱ्या(नारीयल के तेल जैसा स्वाद)
20.नाकसड्या(उपर से सड जाता था)
21.मूतरांद्या(स्वाद अच्छा नही)
22.आंबिन(दशहरी जैसा लंबा व गुच्छो मे आने वाला)
23.बोंबापाठ(बहुत अधिक खट्टा)
24.बोरीवाला
25.डोबी
26.परश्या
27.गधलाद
28.किडा पड्या
29.खरखऱ्या(खाने के बाद गले मे खरास जैसा लगता था)
30.बोंबल्या
31.चोपड्या
32.रायत्या(अचार बनाने के लिए उपयोग करते थे)
33.तिखाडी
34.कागद्या
35.सेप्या
36.केऱ्या
37.दुद्या
38.मेंगनाथ्या
39.कामऱ्या
40.खवट्या(नाम खवट्या लेकिन खाने में एकदम मीठा)
41.वारक्या(यह आम काफी बड़ा होता था एक खुड़ी में एक ही आता था)
42.भानामोती
43.चितरंग सेप्या
44.अंधाऱ्या
45.लुहारिन
46.जोब
47.बेमल्या
48.खारकीन
49.निश्या(यह आम काफी बड़ा था रस निकालने के लिए इसे मसलते नही थे क्यों कि गुठली इतनी छोटी होती थी कि फुट जाता था इसलिए पहले इसके छिलके निकालना होता था)
50.थारल्या
51.हजाऱ्या
52.खोपड्या
_इस सूची में कई नाम है पूरे नाम इस छोटे से लेख में बताना मुश्किल है_
बिरूल बाजार में डंढारों की अमराई का विशेष महत्व था। लेकिन ये बिरुल बाजार की एक अकेली ही अमराई नही हुआ करती थी। ऐसी कई अमराइया बिरुल में थी। रास्तों के दोनों ओर और भी फलो जैसे जाम ,जामुन, गुल्लर इत्यादि के इतने घने और बड़े वृक्ष हुआ करते थे कि इतनी गर्मी में भी सूर्य की किरणें नीचे नही आती थी,पेड़ो की छाया के निचे से होते हुए भी गाव से नागदेव मंदिर पर पहुचा जा सकता था। यदि कोई व्यक्ति गर्मी में गांव के किसी भी क्षेत्र में घुमने निकल जाये तो रास्ते में ही उसे इतने पके आम(पाड़) मिलते थे कि उसका पेट भर जाए और घर मे भी एक बैग भर के ले आये,अगर बोरंग वाले रास्ते से निकल जाए तो नदी में जगह जगह पर इतने झिरे हुआ करते थे कि पीने के पानी के लिए किसी के कुएं पर जाने की आवश्यकता न पड़े। आम तोड़कर घरों के अंदरुनी कमरों में आमों के ढेरों को सुखी घास-फूस से ढककर पकने के लिए छोड़ दिया जाता था। इस समय स्कूल में अधिकतर बच्चो के शर्ट पैंट पर आम के रस के दागों को देखा जा सकता था, या होटो या गाल पे आम के चिक का रिएक्शन । आम रस और सेवइयाँ के साथ का खाना किसी बड़ी दावत से कम नही माना जाता था। ऐसी दावतें रोज ही होती थी। गुजरी और बुधवार बाजार में इन आमों को बेचने के लिए कई कतारें होती थी। भाव भी इतने सस्ते की १०० आमों का भाव बताया जाता था, जो आज कल्पना से परे है।
समय की विडंबना और दुर्भाग्य कि बात है कि आज ऐसी एक भी अमराई बिरुल बाजार में नही बची। गोभी से मोटी कमाई की लालच में हम अंधाधूंद ट्यूबवेल लगाते गये। परिणाम स्वरुप सारे कुए सुखते गए। जमीनी जल स्तर नीचे जाने से आमों की अमराइया भी सुखती गई और घने वृक्षों की जगह विरानों ने ले ली। पिछले करीब 25 वर्षों में हमने इन अमराइयों के साथ बहुत कुछ खो दिया। आज बिरुल बाजार में 3000 से अधिक ट्यूबेल है। जलस्तर 800 फ़ीट पर चला गया। ऐसी भीषण परिस्थिति में आज हम इन अमराइयों की कल्पना कैसे कर सकते है?
उस समय हरिणों के झुंड हमारे खेतो में घूमते थे। यह दृष्य बच्चों और बड़ों के मन में रोमांच पैदा करता था। किसान अपना हल रोककर हरिणों की अठखेलियां देखने लग जाते थे। लेकिन शिकारियों (पारधी) ने इन सबको मार कर बेच दिया। उन्हें रोकने के जगह हमने उन्हें मारने में सहयोग किया।
आज छोटे छोटे आम जिसे गोंगली कहते है जो पहले पेड़ से अपने आप गिरकर सड़ते थे और इन्हें कोई नही पूछता था, ऐसे गोंगली आम आज हम ₹30 रुपये किलो खरीदते है। क्या वह वक्त जब गांव के आसपास अमराई और हरियाली का साम्राज्य था, हम फिर से नही ला सकते? क्या पुनः हम अपने गाँव और खेतों को वैसा फिर से वैसा हरा भरा नही बना सकते ? क्या हम गांव की सारी दिशाओं में अमराइयों के बागों को पुनः निर्माण नही कर सकते?
बिल्कुल कर सकते है। जरूरत है हमें एकजुट होकर आपसी मतभेद भुलाकर मृदा व जल संधारण पर काम करने की। पेड़ों को लगाने की। एक दूसरे की टांग ना खीचकर एक दूसरे की सहायता करने की। स्वार्थ की राजनीति त्यागकर अपने गाँव से प्यार करने की। ऐसा करने से आपका तो भला होगा ही पर साथ में आपके पड़ोसी और सारे गांव का भला होगा।
_एक बार जरूर सोचियेगा, सोचियेगा और वक्षारोपन और रेन वाटर हारवेस्टिंग की प्रणाली को जरूर अपनाइयेगा।_
धन्यवाद।
आपका अपना ही,
*अमित कनेरे*
8796962344
बिरुल बाजार
संदर्भ
बिरुल बाजार के कुछ वृद्ध
श्री शिवराम महेंद्रे
श्री माणिकराव जी बारमासे
श्री शंकररावजी डंढारे
© *_अमित कनेरे_*